कन्नौज : सीटों पर आईपीएल से ज्यादा हुई है कांटे की टक्कर, वोट जरूरी
वोटों की गिनती के दौरान नजारा बिल्कुल क्रिकेट के मैदान की तरह होता है, जब आखिरी ओवर की हर एक गेंद पर जीत-हार का दारोमदार होता है।
कन्नौज - सियासत के मैदान में एक-एक वोट की बड़ी अहमियत है। अक्सर कहा भी जाता है कि हर एक वोट जरूरी होता है। एक-एक वोट की कीमत क्या होती है, इसका अंदाजा कांटे की लड़ाई में पता चलता है। यहां कन्नौज में कई बार ऐसे मौके आए हैं, जहां बेहद नजदीकी मुकाबले में महज चंद वोट ने किसी के सिर पर ताज पहनाया तो किसी को पांच साल के इंतजार का दर्द दे दिया।
कभी फर्रुखाबाद जिले का हिस्सा रहा कन्नौज पहले ही विधानसभा चुनाव से कांटे की टक्कर की गवाह रहा है। उसके बाद के कई चुनावों में यहां दो मुख्य प्रतिद्वंदियों के बीच बेहद नजदीकी मुकाबला हुआ है। वोटों के गिनती के दौरान कभी कोई आगे निकलता है तो कभी उसके पीछे रहना वाला आगे निकल जाता है। आखिरी राउंड की गिनती पूरी होने तक तस्वीर धुंधली ही रहती है। आखिर में एक-एक वोट की अहमियत बढ़ जाती है। वोटों की गिनती के दौरान नजारा बिल्कुल क्रिकेट के मैदान की तरह होता है, जब आखिरी ओवर की हर एक गेंद पर जीत-हार का दारोमदार होता है। कन्नौज जिले की तीनों विधानसभाएं ऐसे कई मौके की गवाह हैं।
भौगोलिक रूप से जिले की सबसे बड़ी विधानसभा सीट छिबरामऊ भी ऐसे ही कांटे की टक्कर की गवाह रह चुकी है। यहां सांसों को रोक देने वाला यह मुकाबला अब से 32 साल पहले 1985 के विधानसभा चुनाव में हुआ था। उस चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर लड़े संतोष चतुर्वेदी ने लोकदल के प्रत्याशी छोटे सिंह यादव को बेहद नजदीकी मुकाबले में 36 वोट के मामूली अंतर से हरा दिया था। तब कांग्रेस उम्मीदवार को 28570 वोट मिले थे, जबकि छोटे सिंह यादव को 28534 वोट मिले थे। यह मुकाबला कन्नौज के सियासी इतिहास का सबसे कड़ा और कांटे के मुकाबले के तौर पर याद किया जाता है। इस चुनाव के एक साल पहले ही 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में छोटे लाल यादव कांग्रेस की शीला दीक्षित के हाथों सांसद का पंद गंवा चुके थे।
अब जिस सीट का नाम तिर्वा है, वह 2012 से पहले उमर्दा के नाम से जानी जाती थी। इस सीट पर कई बार कांटों की लड़ाई हुई है। बेहद नजदीकी मुकाबला देखने को मिला है। इस सीट का गठन 1967 में हुआ था, उसी चुनाव में यहां जीत-हार का अंतर 236 वोट का था। तब डॉ. राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से लड़े होरीलाल यादव ने कांग्रेस के रामरतन पांडेय को 236 वोट से हराया था। दो साल बाद हुए 1969 के अगले चुनाव में कांग्रेस के रामरतन पांडेय ने जनसंघ के धर्मपाल सिंह को 331 वोट से हराया था। फिर 1991 में सपा के टिकट पर अरविंद प्रताप सिंह ने भाजपा के टिकट पर पड़े रामबक्श वर्मा को 218 वोट से हराया था।